वासवदत्ता को काव्यकार ने ८ सर्गों में विभक्त किया हैI मथुरा की नगरवधू वासवदत्ता और
'उप्दुप्त' की इस कथा-काब्य की अवधी भगवान बुद्ध के महाप्रयाण के लगभग १००
बर्षों के बाद, ३८३ इसवी पूर्व चर्चित हैI
इंगितिका
सौंदर्य अतीतकाल से मानव-मन को सम्मोहित करता आ रहा हैl
इसी की मनोरम सृष्टियाँ रंभा, मेनका, उर्वशी, पद्मनी, एफ्रोडाइट, हेलन आदि हैंl
विश्वकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर ने उर्वशी का अवतरण करते हुए- नहो माता, नहो कन्या, नहो वधू-कह कर उसकी अनोखी अवस्थिति दिखलाई परन्तु, सभी के प्रसंग में एक न एक आख्यान रचे ही गएl
इसी की अगली कड़ी यदि वासवदत्ता को मान लिया जायगा तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिएl
परन्तु, यह वासवदत्ता -उद्यान की वासवदत्ता नहीं-उत्तर बुद्ध-युग के मथुरा नगर की एक विलक्षण रूपा-जीवा है जो नारी के अंतर्मन की अन्ध गुहाओं में एक नन्हा टिमटिमाता दीप जलाये रखती है- और इस अर्थ में वासवदत्ता चिरन्तन हैl
रहा उस चिरन्तन को शब्दों, छंदों में ढालने का मेरा प्रयास-तो वे मेरे अपने हैंl
नए नहीं, पुराने हैं-परन्तु, यह वासवदत्ता भी तो पुरानी ही हैl
अस्तुl
विमल राजस्थानी
बेतिया (बिहार)
कार्तिक- ‘धन तेरस’- १९९९ (कवी-श्रेष्ट का ७८ वाँ जन्मोत्सव के सुअवसर पर प्रकाशित)
*रचना-पूर्ति मात्र ७५ दिन
पात्र-परिचय
नृपति- तत्कालीन यदुवंशी मथुरा नरेशl
मदलसा- अवकाश-प्राप्ति के सन्निकट पहुंची मथुरा की अगर-वधूl
वासवदत्ता - मथुरा की नवनिर्वाचित विश्व सुंदरी नगर वधूl
सुनयना- वासवदत्ता की प्रधान अन्तर्ग सखी-दासीl
श्रेष्ठी- सुगंधों के सुप्रशिद्ध धन-कुबेर क्व्यापारीl
शाणकवासी- स्वयं भगवन बुद्ध द्वारा दीक्षा प्राप्त, दीर्धजीवी सिद्ध बौद्ध भिक्षु तथा उप्दुप्त के आध्यात्मिक गुरुl
उपगुप्त- श्रेष्ठी के तीसरे पुत्र, बौद्ध भिक्छु सिद्ध पुरुष अलक्षण बुद्धl
मूर्तिकार- भगवान परशुराम द्वारा बसाये गए कोंकण प्रदेश का विश्वविख्यात शिल्पीl
वाणी-वंदना
आशासु राशेभवदङग्वल्ली
भासैव दासिकृतदुग्ध्यसिन्धुम्l
मन् स्मितैनिर्न्दित शार्देंदुं
वंदेऽरविन्दासन सुन्दरित्वाम्ll
स्वगत
घूर्णित प्रश्न कई अन्तर में, उत्तर कौन कहेगा
इतना सारा बोझ हृदय यह कब तक और सहेगा
है मनुष्य ऐसा धरती पर कहाँ, जहाँ मैं जाऊँ
इन प्रश्नों के चक्रव्यूह से कैसे बाहर आऊँ
ईश्वर हो तुम, तुमने ही तो यह जंजाल रचा है
इसी तथ्य में पगी-पगी वेदों की अमृत ऋचा है
पूछ रहा हूँ तुमसे, तुमको उत्तर देना होगा
जनक बने हो तो दायित्व तूम्हीं को लेना होगा
एक ओर वासव को तुमने रचा कोष कर रीता
उसे बना कर भेजा तुमने जलता हुआ पलीता
अपने ही हाथों तुम ने उसका छवि रूप सँवारा
उमडा् सिन्धु वासनाओं का, बही प्रेम की धारा
प्रखर धृणा का वेग, किया विद्रूप उसी ललना को
प्रश्रय दिया मनुज के मन में प्रतिहिंसा, छलना को
कल तक जिस भू पर बहती थी मनुज प्रेम की धारा
वही धरा बन गयी मनुज के लिए तप्त अंगारा
बिखर गया ऐश्वर्य, रेट का महल ढ्ह गया ऐसे
एक निमिष में अन्जाली-जल-सा सिन्धु बह गया जैसे
तालमेल कथनी-करनी में ढूँढ नहीं पाता हूँ
अथ से इति तक, इति से अथ तक लौट-लौट आता हूँ
कहीं धृणा का घोष, तो कहीं पृति-प्यार बजते हैं
क्रन्दन कहीं, यज्ञ-वेदी पर कलश कहीं सजते हैं
कहीं अहम् का अन्धकार है, कहीं विनय झुकता है
कहीं स्वयम की तुष्टि-हेतु पल-पल मानव चुकता है
हीन समझ, मानव पर मानव धन सा छा जाता है
जहाँ चाहिए अश्रु, वहीं अंगारे बरसाता है
स्वार्थ, स्वार्थ रे! स्वार्थ, स्वार्थ ही घर-बाहर बजता है
धन-पशु हो या रंक, अंतमें, बाँसों पर सजता है
दो गज धरती, शुष्क लकडि्यों की छोटी-सी ढेंरी
शाश्वत सच्चाई है, फिर भी- यह तेरी, वह मेरी
छोटे- से जीवन में कितने खेल खेलने होते
एक तुम्हारे आगे हाथों के उड् जाते तोते
नहीं तुम्हारे सम्मुख महाबली का वश चलता है
नहीं नियाम टूटते, सूर्य पश्चिम में ही ढलता है
क्यों निर्दोष दंड पाता है, दोषी बच जाता है
क्यों अलभ्य की प्राप्ति हेतु मनाव-मन अकुलाता है
सीमित क्यों असीम होता है, बल किससे पाता है
स्वयं मुक्त हो, अन्यों को भी साथ खींच लाता है
सुख-दुःख की यह आँख मिचौनी क्यों चलती रहती है
स्नेह-विहीन दीप की बाती क्यों बलती रहती है
कही श्रवण-सा पुत्र, कहीं दानव सूत के चोले में
गृह-लक्ष्मी है कहीं, कर्कशा बैठ गयी डोले में
नर्क बना देती कटुंब को, खंड-खंड करती है
आग लगा देती है सुख में, पग ज्यों ही धरती है
बंधू पतित होते, कन्याओं पर कुदृष्टि रखते हैं
मन के कुटिल, कुचक्री, ऊपर से सुभद्रा दीखते हैं
जीवन- मूल्यों का, द्रुतगति से, ह्रास हो रहा क्यों है
अपना शव अपने कंधो पर मनुज ढ़ो रहा क्यों है
सेवा करने की यह देखो होड़ लगी कैसी है
जन-सेवाक की वृत्ति हीन धन-पशु दानव जैसी है
शक्ति और धन के पीछे क्यों अंधी दौड़ लगी है
अंधकार सर्वत्र, ज्ञान की विभा न कहीं जगी है
संस्कृति सुबक रही, क्रन्दन करती सभ्यता हमारी
एक-एक कर, लुटी जा रहीं हैं क्यों निधियाँ सारी
क्यों ऐसी बातें होती हैं, क्यों भविष्य में होगी
दोगे उत्तर? क्यों सिरजे ये योगी और वियोगी
रचना बहुत विचित्र, अटपटी, समझ नहीं पाता हूँ
फिर भी मैं जाने क्यों "वासव" का चरित्र गाता हूँ
सर्ग-१
मथुरा
रस-राग-धरा, मधु भरा कण-कण में
मन रमा-रमा , तन थमा वेणु के स्वन में
कवि पुलाक-किलाक वज्र-कण-वंदन करता है
प्रभु-चरण-चुम्बिता राज सर पर धरता है
अयि देव-निर्मिता मथुरे! तेरी जय हो
स्मरण-मात्र से पाप मनुज के छय हों
चर्मोत्कर्स कलाओं का ऐसा अन्यत्र नहीं है
यदि है स्वर्ग कही तो सचमुच वह बस, यहीं, यहीं है
अक्षय वट-सी पुण्य-पूज व्रज-भूमि, स्वर्ग से सुन्दर
जिसकी राज मस्तक पैर धर तर जाते सुर-नारी-नर
योगेश्वर की जन्म-भूमि, सौभाग्य प्रसून खिला है
शत-सहस्त्र स्वर्गों से भी ऊँचा स्थान मिला है
घुटनों के बल चले ब्रह्म, यमुना पद-ताल धोती है
वंदन करते त्रिदेव, देवियाँ प्रणत होती हैं
धन्य यहाँ के गिरी-वन-प्रांतर, धन्य कुँज,पथ, गलियां
कण-का अब भी अमृत-स्वरों में गाते विरुदावलियाँ
मिट्टी के अणु-अणु से मोहल गंध मधुर आती है
मादक वंशी-दवनी एजी-जग को मोहित केर जाती है
मस्तक पर देवता चरण-रज चढ़ा धन्य होते है
विधि-विधि में लोट-लोट तन-मन की सुधि खोते है
यह पावन यमुना का तट, मथुरा निहारती जल में
ऐसा अनुपम तीर्थ नहीं कोई भी भूतल में
कारागार! तुम्हारे प्रस्तर-खंड भाग्यशाली हैं
जिनने अनायास ईश्वर की शिशु-झाँकी पा ली है
कंस यदि नहीं दुराचार की सीमा लाँघा करते
कैसे क्षीर-सिंधु-वासी प्रभु पृथ्वी पैर पग धरते
जब-जब है देखते ईश-अन्याय धारा पैर होता
तब-तब युग त्रेता होता, तब-तब युग द्वापर होता
अपना दूत विशेष धरा पैर प्रथम भेज देतें हैं
अनाचार को तीव्र बना जो अमित तेज देते हैं
पराकाष्ठा पैर पहुँचा देते जब कुटिल अन्य को
स्वामी का आदेश, असीमित केर देते जन-भय को
सब के मिलित पाप से दबी धरा डोला करती है
नियति सुकाल-कपट-अर्गला तब खोला करती है
कंपित हो आकाश सिसकता, अवनी विलख रोती है
मनुज-रूप ईश्वर की तब नारी जननी होती है
लीला-धाम बना जग को, प्रभु त्राण दिला देते हैं
दूत भक्त को, अपने हाथों, अमृत पीला देते हैं
निज कर्तव्य निभा केर सेवक स्वर्ग लौट जाता है
युग-युग से इस धारा-धाम पैर यही दृश्य आता है
बीते कोटि कल्प पैर अब भी घृणा-भर ढ़ोते हैं
प्रभु पद-सेवा-लीन, सहन की शक्ति कहाँ खोते हैं
राम और रावण के ‘रा’-रहस्य को किसने जाना
कंस, कन्हैया के ‘क’-भेद को कब जग ने पहचाना
जो ज्ञानी-ध्यानी हैं वे ही समझ इसे पते हैं
‘रा’-‘क’ के राका-रहस्य पैर झूम-झूम जाते हैं
यह योंही होता न, सुनिश्चित यह विधान है विधि का
गोपनीय कुछ छिपा हुआ है आशय करूणानिधि का
अस्तु, कंस! तुम धन्य, त्राण के सूत्रधार बने तुम
वंशीवाले की मधु-लीला का जयकार बने तुम
तुम प्रणम्य हो, तुम नमस्य हो, तुम निम्मित हो जय के
प्रभु-इक्छा से ही होते पार्षद अवतार अनय के
साधुवाद ओ कंस! धारा को धाम बनाया तुमने
लीला-धाम बना केर वज्र को, पुण्य कमाया तुमने
प्रभु के हाथों मरण वरण केर बने मोक्ष-अधिकारी
युग-युग तक स्मरण रखेंगे सुर-किनार, नर-नारी
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प्रबल प्रतापी भूप, राजधानी मथुरा अति सुन्दर
भव्य-दिव्य प्रासाद, खिले ज्यों धरती पैर इन्दीवर
चिकने, धुल-विहीन, स्वच्छपथ,चम-चम करती गलियाँ
सुन्दर, मनहर गेह, लग रहीं झूठी तारावलिया
द्वार –द्वार पर मणि-मुक्त के वन्दनवार टाँगें हैं
भीति-चित्र दीवारों पैर के विधि ने स्वयम् रंगें हैं
हाट-बाट में श्री-समृद्धि की आभा छिटक रही है
केशर-कस्तूरी, मेवा-मिश्री से पति माहि है
पय, पय- निर्मित भाँति-भाँति के मिष्टानों की ढ़ेरी
रंग-विरंगे फल-फूलों की है भरमार घनेरी
छवि-विचित्र मयूरपुच्छों से, सतरगी वस्त्रों से
जगमग हैं अल्प आयुधों, अस्त्र-शस्त्र से
अभिनव, सुखद विपुल श्रृंगार-प्रसाधन भरे पड़े हैं
हीरे, मणि, मुक्ताओं के कंठे पुखराज जड़े हैं
स्वर्णाभूषण, रत्नों की ढ़ेरियाँ, स्वर्ण-मुद्राएँ
भाँति-भाँति के गंध-द्रव्य, सौरभ से, मत्त बनायें
मूर्तिकार, चल-चित्रकार नैसर्गिक छटा उकेरें
भाँति-भाँति की कला-वस्तुओं के हैं ढ़ेर धनेरे
व्यस्त सभी क्रेता-विक्रेता, हलचल बहुत मची है
सुर-नर किन्नर, क्रेताओं में सुरपति, स्वयम् शची है
अति असीम आनंद हर्ष, उल्लास, विनोद भरा है
मथुरा में जैसे कुबेर का रत्न-कोष बिखरा है
नर-नारी, अमूल्य वस्त्रों से शोभित, सजे-धजे हैं
कोई नहीं कुरूप, लगन से विधि ने सब सिरजे हैं
सभी सुखी-संपन्न, न अर्थाभाव कहीं किंचित है
नहीं एक भी मनुष्य जो सुख-सुविधा-वंचित है
भाव-जगत में भले कष्ट होता, पीड़ा होती हो
प्रिय-वियोग में भले विरहिणी सुबक-सुबक रोती हो
रोग, प्रभाव आयु का, मृत्यु भले कुहराम मचा दे
नियति-चक्र औ’ कल भले मानव को नाच नचा दे
होनी पर तो स्वयम् ब्रह्म का वश नहीं चला है
किन्तु, यहाँ लक्ष्मी न अस्थिर और नहीं चपला है
सजी-सजी युवतियाँ अप्सराओं को लजा रही हैं
पुष्प-गुच्छ-सी हट-बात, धार-आँगन सजा रही है
टिकी त्रिवलियों पैर कचुंकियों की अनमोल धरोहर
पुलक विखेरें गज-गामिनियों के रन-झुं नुपुर-स्वर
बंकिम चितवन युवा-मनों को वेध-वेध जाती है
आकुल आलिंगन करने को गजभर की छाती है
चहुँदिशि शिष्ट विनोद-हास्य के तारों की झंकृति है
इंद्र-धनुष-सी मनोहारिणी मथुरा क संस्कृति है
यमुना-जल में राजमहल की परछाई झलमल है
पंखुरियों पैर रत्न-दीप बाले ज्यो खिला कमाल है
लहर चूमती वृक्षावलियों पैर गंजित कलरव है
खग-कुल-दल का, वृन्त-वृन्त पैर, नृत्य-गन अभिनव है
फुदक-फुदक केर मधुर स्वरों में रवि-वंदन करते हैं
चंचु बदन पैर फेर प्रकृती का अभिनंदन करते हैं
तिन ओर परिखाएँ, जल ऊपर तक भरा-भरा है
एक ओर कालिन्दी का कैशोर्य सहज निखरा है
दस गज ऊँची प्राचीरें हैं, ठौर-ठौर गुम्बद हैं
प्रहरी प्रांशु सजग गर्वीले, शस्त्रागार बृहद हैं
प्राचीरों के भीतर सुन्दर, मनहर कई महल हैं
जिनकी शोभा का वर्णन करना रे! अहि सहल है
पुष्प-वाटिकाओं में झुंड उड़ा करते अलियों के
वन-निकुंज लगते ज्यों दल झलमल तरवालियों के
महलों से कुछ दूर मध्य में सभागार अति सुन्दर
एक सहस्त्र आसनों वाला अति विशाल अभ्यंतर
स्वर्ण-रजत-मंडित, नृप का, सिंहासन अति मनहर है
रत-जड़ित नृप-छत्र, मोतियों की झलमल झालर है
ध्वनि-अवरोधक युक्त, नृपति का चिंतावेश्म, जटिल है
गुप्तद्वार जनसाधारण की आँखों से ओझल है
अनुशासन का ओज व्याप्त है, धर्म-निति छाई है
पद-सेवा ताज, क्षीरोदधि से, रमा उतर आई है
न्यायी राजा के प्रताप, यश की कह रहा कहानी
उठती-गिरती लोल लहरियों में यमुना का पानी
सारा नगर धीरा ऊँची, प्रस्तर की, प्राचीरों से
सिंघद्वार अति भव्य जड़ित मणि-मुक्ताओं, हीरों से
आठों पहर बज रहे मंगलवाद्धय, हर्ष नर्तित है
सुरपुर की नार्तान्शाला-सी गृह-गृह में झंकृत है
चरमोत्कर्ष कलाओं का ऐसा अन्यत्र नहीं है
यदि है स्वर्ग कहीं तो सचमुच वह बस, यहीं, यहीं है
इसी स्वर्ग में राजनर्तकी मदालासा बडभागी
कोटि-कोटि जन जिसके नर्तन-गायन के अनुरागी
जिसका ड़लता यौवन भी मलयज के कोष लुटाए
जड़-चेतन जिसकी छवि-ध्युती पैर बार-बार बलि जाये
हुए एक शत वर्ष बुद्ध को गए, स्मृति टटकी है
इसी काल में विस्मयकारी धटना एक घटी है
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वासवदत्ता
[] शैशव
[] मदालसा
[] इर्ष्या
[] रात्रि-चर्या
वृत्तानुपुर्वे च न चातिदिर्धे जंङधे् शुभे सृष्टवतस्तदीयेl
शेषांङग् निमार्णविधौ विधातुर्लावण्य उत्पाध्य इवास यत्नःll
-- कालिदास (कुमार संभव)
शिशु में यह लावण्य! तरुण वे में त्रिलोक डोलेगा
रूप-सिंधु का गर्जन नभ के श्रुति-पट तक बोलेगा
शैशव
देव-कन्या, यक्ष-पुत्री या की कोई किन्नरी है
कौन सध्योजात यह, क्या व्योम से उतरी पारी है
यह किलकती कांति, यह लावण्य, यह सौंदर्य-धारा
स्वर्ण-सा वपु, नयन खंजन से, अलौकिक रूप प्यारा
अरुण पतले होंठ, स्मिति-कोष शत-शत है निछावर
लाल पद-तल औ’ हथेली, रची हो जैसे महावर
चन्द्र को लज्जित करे ऐसा विभासित दिव्य आनन
पुलक रंध्रों में सृजन करते सुगन्धित श्वाँस के स्वन
कौन है, यह कौन, गुंजित प्रश्न, उत्तर कौन देगा?
बालिका अपनी कहे, सौभाग्य ऐसा कौन लेगा?
प्रेम का प्रतिदान अपना कह सके, साहस किसे है?
क्लीव है, यदि प्रेम में प्यारा नहीं अपयश जिसे है
वासना की आग का ही धर्म बस, वह जानता है
सत्य को स्वीकार करने का नहीं हठ ठानत है
घोर लिप्सा, रूप-रस, कौमार्य-सुख की, पालता है
भींच चुटकी में किसी नन्ही कलि को डालता है
और जब चीत्कार उसकी रूप धर आती धरा पर
रेत का बन कर धरौंदा बिखर जाता भरभरा कर
वासना की वहिन् वाले दृग, धरे कालि हथेली
छोड़ देता है तरि को सिंधु-लहरों पर अकेली
अबस-बेबस तरी, लहरें लीलने को दौड़तीं हैं
तक्षि्काएं फनफना फन फुफ्कारें छोड़तीं हैं
हेरती सुने दृगों से तक्षकों की बम्बियों को
सूप देती पाप प्रिय का शून्य जंगल, झाड़ियों को
किरण, प्रस्नुत-स्तनी की कोख से छिटकी हुई है
शरण भू-नभ पैर , पेर्वशाधर में अटकी हुई है
कौन इस अज्ञात कुल की कलि को पाले-संभाले?
रक्त छाती का पीला कर, क्रोड़ में अपने बिठा ले
यह अशुभ उपहार देवो का की नर की कालिमा है!
या की कुंती-गर्भ जैसी सूर्य की द्युति, लालिमा है!
है अनेकों प्रश्न, नके कौन उत्तर दे सकेगा?
रूप की इस प्रखरता का वेड क्या रोके, रुकेगा?
कौन, इसको कौ मंदिर-देहरी पैर से उठा ले
कौन इस विद्युत-प्रभा को नया की पुतली बना ले
प्रश्न यह सरे नगर पैर मेध-सा मँडरा रहा है
तर्क सारे व्यर्थ, स्तंभित, चकित, जो भी जहाँ है
बात श्रुति-पट तक नृपति के गयी उड़ती-सी अचानक
स्वप्न देखा था नृपति ने रत में कोई भयानक
चित्त था उद्विग्न, फिर भी बात ऐसी ही बड़ी थी
नृपति के सम्मुख उपस्थित एक निर्णायक धड़ी थी
जो निराश्रित है, नहीं जिसका यँहा कोई सहारा
दुखी हो जिसने नियंता को, करूँ स्वर से पुकारा
नृपति प्रतीधि उसी सत्ता का धरा पैर क्या नहीं है?
एक की क्या बात, साडी प्रजा का पालक वही है
जुटे चिंतावेश्म में आमनी, सेनापति, सभासद
प्रश्न था अद्भुत, समस्या थी जटिल-सी वेद्नाप्रद
व्यक्त की चिंता नृपति ने- ‘कौन है वह अधम पापी!
कौन वह नर-पशु की जो भगा, छिपा मुख, उत्कलापी!!
कल्पना में भी न ऐसा आज तक आया अनय था
सत्य का वर्चस्व शाश्वत, शील मर्यादित अभय था
नहीं मेरे राज्य में ऐसा अनय कौंघा कभी था
मुहँ छिपा कर धर्म यों लेता नन्ही औंधा कभी-था
सह्य मुझको नहीं टिका कलुष की इस कालिमा का
कौन हैं वह क्लीव जिसने है लजाया दुघ माँ का
त्वरित मेरे सामने उसको उपस्थित किया जाए
दंड जिससे क्रूरतम उस ह्रिंश पशु को दिया जाए’
कितु, थी तत्काल सम्मुख शिशु-व्यवस्था की समस्या
दृष्टि नीची किये चिंतित मंत्रियो का अवश-सा
मंत्रणा कुछ और धहरी, नाम सहसा एक दमका
बात सब को भा गयी, धुल-मिल गया मंतव्य सबका
‘एक मात्र मदालसा ही राज्य की जो नर्तकी है
योग्य है इस कार्य के सब भांति, यद्यपि वह थकी है
पर नहीं व्यवधान उसकी आयु पालन में बनेगी
प्यार में उसके निरंतर बालिका निशि-दी सनेगी
वहन होगा राज्य-कोषागार से व्यय-भार सारा’
दिख गया सबको अचानक शून्य नभ में एक तारा
मदालसा
‘हे भगवान! पाप यह किसका मेरे गले पड़ा है!’
झुँझलायी-सी है मदलसा, मन उखड़ा-उखड़ा है
थी मैं चिंता-मुक्त, व्यर्थ का यह कुमार ढ़ोऊँगी
सहज ह्रदय क शांति, शक्ति, सुख-चैन व्यर्थ खौउँगी
किन्तु अटल आदेश नृपति का सर-माथे धरना है
सुख से हो या दुःख से, यह कर्तव्य पूर्ण करना है’
झटपट कर श्रृंगार, चल पड़ी चिंता-युक्त, मन मारे
‘चलूँ, बहाने इसी टेक लुँगी माता प्रभु-द्वारे’
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हटो-हटो, दो पंथ, भीड़ में महारोर छाया है
राज-नर्तकी मदालसा का रथ असमय आया है
उतरी रथ से मदालसा, पीछे प्रधान दासी है
छिटक रही है रूप-ज्योत्सना ज्यों पूरणमासी है
चाल मदभरी, हाव हठीले, भाव मंदिर मदमाते
सावधान मुद्रा, प्रशांत सब, उसके आते-आते
था यौवन उतार पर, कौशल में कसाव भारी था
तिस वसंत झेलने पर भी रूप मनोहारी था
किन्तु, थक चुकी थी अभिलाषा कीर्ति-भर को ढ़ोते
मन के तार मृदंग-थाप को अब थे नहीं पिरोते
धीरे-धीरे ह्रदय-धरा पर प्रभु-पद-चाप ध्वनित थी
साँसों में अधिकांश देव-चरणों पर बिछी, प्रणत थी
पूजा-भाव प्रगाढ़, देव-दर्शन की उत्सुकता है
देव-देहरी पर आते ही प्रथम शीश झुकता है
ज्योंही शीश उठा की पार्श्व में चंद-किरण-सी चमकी
देखा-लिपटी पड़ी, चाँदनी पत्तों में, पुनम की
उत्सुकता का पुंज, प्रभा-मंडल की द्युति भाती है
दायें पग का चूस अँगूठा, कन्या मुस्काती है
मदालसा यह चकाचौंध, यह रूप निखर कर चहक है
यह असीम सौंदर्य! अहा रे! गिरती नहीं पलक है
शिशु में यह लावण्य! तरुण वे में त्रिलोक डोलेगा
रूप-सिंधु का गर्जन, नभ के श्रुति-पट तक बोलेगा
बहुत ललक कर, बड़े यत्न से, शिशु को अंक लगाया
जग उठा मातृत्व, दुग्ध स्तन में भर-भर आया
कभी-कभी प्रभु-इक्छा से अनहोनी हो जाती है
नियति सुलगती हुई रेट में कानन बो जाती है
लौटी महलों में मदालसा, सँग नृप की थाती है
भींग गयी कंचुकी, दुग्ध की धार बही आती है
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मदालसा का अहिं कभी मातृत्व-बोध था जागा
सोचा-जो जन वंचित शिशु-सुख से, है बहुत अभागा
अहा! वक्ष से लगा असीमित पुष्कल सुख मिलता है
यह गुदगुद आनंद, प्राण का कमाल सहज खिलता है
तभी अचाक बात तड़ित-सी कौंध गयी यह मन में
‘अवहेलना हुई है मुझसे आज देव-पूजन में
नहीं देव-चरणों पर मई फल-फूल चढ़ा कुछ पाई
नहीं एनी-दिवसों की भांति भज-स्तुतियाँ गयीं
किन्तु, देव-पूजा क्या नहीं हुई सुफलित है मेरी?
धन्य हुई है क्या न प्राप्त कर शिशु यह प्रभु की चेरी?
यह पावन प्रसाद इश्वर का, सुनी कोख फली है
स्वर्ण-दीप की रजत-वर्तिका असमय आज जाली है
पूजन-वन्दन नहीं देखते प्रभु भावों के भूखे
छप्पन भोगों को झुठलाते तंदुल रूखे-सूखे
यह प्रभु का वरदान, सुकन्य बिन प्रयास पायी है
लगता है समग्र उडुगण की छटा सिमट आयी है
सच है! बिना बिचारे जो कुछ सोच-समझ लेते हैं
पछताते है और स्वयं को धोखा हीं देते हैं
वे कितनी उद्विग्न, कुचिताओं से भरी-भरी थी
बेबस थी, नृप की बंकिम भृकुटी से डरी-डरी थी
नगरवधू थी, भाग्य में मेरे माँ बनना था
क्या होता मातृत्व, जान पाना अलभ्य सपना था
नैन मुझे स्मरण, कौन थी, आई यहाँ कहाँ से
परिचय मात्र से केवल, परिचय मात्र सूरा से
नहिं स्वजन, राज्याश्रय ही बस, मात्र एक सम्बल है
अपनी एक सुनयना की माँ, अपना यमुना-जल है
क्या होती संतान नहीं सपने में भी जाना था
नृत्य, वाद्य, संगीत इन्हें ही बस, सर्वस्व मना था
इक्छा भी थी नहीं मोह-माया का जल बुनूँ मैं
जाऊँ छली काल के हांथों, सिहरूँ, शीश धुनूँ मैं
राजा का आदेश, दुखी मन से मैं वहाँ गयी थी
मेरे लिए नृपति की आज्ञा वेधक, निपट नयी थी
क्या-क्या उठे न भाव ह्रदय में कितना क्षोभ भरा था
देव-देहरी तक मेरा मन कितना मरा-मरा था
किन्तु, नियती के हाथों मेरी कोख भर गयी ऐसे
घटाटोप को चीर पूर्ण चंद्रोदय दमके जैसे’
मन ही मन न्यायी राजा के चरणों में सर नत है
बारंबार नर्तकी नृप-चरणों पर झुकी, प्रणत है
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परम तृप्ति का बोध, उमंगों का अथाह सागर है
दिन दूनी औ’ रत चौगुनी होती काँटी प्रखर है
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शुभ मुहर्त, उल्लास असीमित, यज्ञ-धूम्र छाया है
नामकरण का यह मंगल अवसर सुखमय आया है
वन-पूजन हुआ, धुधुरुओं पर अक्षत-रोली है
वासवदत्ता मदालसा की बेटी मुँह बोली है
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‘सा’ साधा –रे’ राम, गमक – ग’ की मनहर है
मदिरीला ‘म’, पुलकाकुल ’प’ अति सुन्दर है
‘ध’ की धुन प्यारी-न्यारी, ‘नि’ नित नूतन है
‘सरगम’- बोल सुहाने, विस्मित-मुग्ध भुवन है
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स्वर्ण-धुँघरुओं की मादक रन-झुन, नर्तन चलता है
दीप अखंड साधना का द्रुत निशि-वासर जलता है
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